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संयत अध्ययन
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'लेश्या-द्वार' के अनुसार पुलाक, बकुश एवं प्रतिसेवना कुशीलों में तेजो, पद्म एवं शुक्ल ये तीन लेश्याएँ पायी जाती हैं जबकि कषाय कुशील में छहों लेश्याएं पायी जाती हैं। निर्ग्रन्थ में एक शुक्ल लेश्या रहती है। स्नातक सलेश्य एवं अलेश्य दोनों हो सकते हैं। सलेश्य होने पर परम शुक्ल लेश्या रहती है। सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय संयतों में छहों लेश्याएँ रहती हैं, परिहारविशुद्धिक में तेजो, पद्म एवं शुक्ल लेश्या रहती है। सूक्ष्म संपराय में एक शुक्ल लेश्या होती है। यथाख्यात सलेश्य एवं अलेश्य दोनों प्रकार के होते हैं। सलेश्य होने पर शुक्ल लेश्या वाले होते हैं।
'परिणाम-द्वार' में वर्धमान, हायमान एवं अवस्थित परिणामों के आधार पर निरूपण है। 'बंध-द्वार' में कर्मों की मूल प्रकृतियों के बन्ध का विवेचन है। कर्म-वेदन द्वार में उदय में आई हुई कर्म प्रकृतियों के वेदन का निरूपण है। कर्म-उदीरणा-द्वार में आठ कर्म प्रकृतियों में किसके कितनी प्रकृतियों की उदीरणा होती है, इसका उल्लेख है।
'उपसंपत् जहन-द्वार' में यह बताया गया है कि पुलाक आदि निर्ग्रन्थ एवं सामायिक आदि संयत अपने पुलांकत्व या सामायिक संयत्व आदि को छोड़ने पर क्या प्राप्त करते हैं। वे नीचे गिरते हैं या ऊपर चढ़ते हैं, इसमें इसका बोध होता है।
संज्ञा-द्वार, आहार-द्वार एवं भव-द्वार में संज्ञा, आहार एवं भव की चर्चा है। इसके अनुसार पुलाक, निर्ग्रन्थ एंव स्नातक नो संज्ञोपयुक्त होते हैं। बकुश एवं कुशील संज्ञोपयुक्त भी होते हैं और नो संज्ञोपयुक्त भी होते हैं। आहारादि संज्ञाओं में आसक्त संज्ञोपयुक्त एवं उनमें अनासक्त नो संज्ञोपयुक्त माने गए हैं। सामायिक से लेकर परिहारविशुद्धिक संयत संज्ञोपयुक्त भी होते हैं और नो संज्ञोपयुक्त भी होते हैं। सामायिक से लेकर सूक्ष्म संपराय तक के संयत आहारक होते हैं जबकि यथाख्यात संयत आहारक एवं अनाहारक दोनों प्रकार के होते हैं। पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक आहारक एवं स्नातक अनाहारक होते हैं। आकर्ष-द्वार में भव-द्वार को ही आगे बढ़ाया गया है तथा इसमें यह विचार किया गया है कि पुलाक आदि अपने एक या अनेक भवों में कितनी बार पुलाक आदि संयम ग्रहण करते हैं। काल-द्वार का दो बार प्रयोग हुआ है, किन्तु प्रयोजन भिन्न है। पहले अवसर्पिणी आदि कालों में पुलाकादि का विवेचन था और इस काल-द्वार में पुलाक आदि की अवस्थिति का वर्णन है। अन्तर-द्वार में यह विचार किया गया है कि एक प्रकार का संयंत या निर्ग्रन्थ पुनः उसी प्रकार का संयत या निर्ग्रन्थ बने तो कितने काल का अन्तर या व्यवधान रहता है।
'समुद्घात-द्वार' में प्रत्येक निर्ग्रन्थ एवं संयत में होने वाले समुद्घातों का कथन है। 'क्षेत्र द्वार' भी दूसरी बार आया है। इसमें लोक के संख्यातवें, असंख्यातवें भाग आदि में पुल्पक आदि के होने या न होने का विचार किया गया है। 'स्पर्शना-द्वार' में लोक के संख्यातवें, असंख्यातवें आदि भागों को स्पर्श किए जाने या न किए जाने का विवेचन है।
'भाव-द्वार' के अनुसार पुलाक, बकुश एवं कुशील क्षायोपशमिक भाव में होते हैं। निर्ग्रन्थ औपशमिक या क्षायोपशमिक भाव में होते हैं स्नातक क्षायिकभाव में होते हैं। सामायिक आदि चार प्रकार के संयत क्षायोपशमिक भाव में होते हैं जबकि यथाख्यात संयंत औपशमिक या क्षायिकभाव में होते हैं।
‘परिमाण-द्वार' में यह निरूपण किया गया है कि एक समय में अमुक निर्ग्रन्थ या अमुक संयत कितने होते हैं।
छत्तीसवाँ द्वार अल्प- बहुत्व से सम्बद्ध है। इसके अनुसार पांच निर्ग्रन्थों में सबसे अल्प निर्ग्रन्थ हैं। उनसे पुलाक, स्नातक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील एवं कषायकुशील क्रमशः संख्यातगुणा- असंख्यातगुणा हैं। पाँच प्रकार के संयतों में सबसे अल्प सूक्ष्म संपराय संयत हैं। उनसे परिहारविशुद्धि, यथाख्यात, छेदोपस्थापनीय एवं सामायिक संयत क्रमशः संख्यात गुणा है।
संयतों को प्रमत्त एवं अप्रमत्त भेदों में भी बांटा गया है। एक प्रमत्तसंयमी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है। अप्रमत्तसंयमी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक रहता है। अनेक जीवों की अपेक्षा ये दोनों सर्वकाल में रहते हैं।
देवगति में सम्यग्दर्शन प्राप्त करके भी कोई देव संयत नहीं हो सकता, उन्हें असंयत एवं संयतासंयत भी नहीं कहा जा सकता, इसलिए व्याख्या - प्रज्ञप्ति सूत्र में उन्हें 'नोसंयत' कहा गया है।
अल्पबहुत्व की दृष्टि से संयत जीव सबसे कम हैं। उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं तथा उनसे असंयत जीव अनन्तगुणे हैं।
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