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द्रव्यानुयोग-(२) निर्ग्रन्थ एवं संयतों का इस अध्ययन में ३६ द्वारों से पृथक्-पृथक् निरूपण हुआ है। इन ३६ द्वारों से जब निर्ग्रन्थों एवं संयतों का विचार किया जाता है तो इनके सम्बन्ध में सभी प्रकार की जानकारी संकलित हो जाती है। ३६ द्वारों में वेद, राग, चारित्र, कषाय, लेश्या, भाव आदि द्वार महत्वपूर्ण हैं।
वेद-द्वार के अनुसार पुलाक, बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ सवेदक होते हैं। इनमें काम-वासना विद्यमान रहती है। कषाय-कुशील अवेदक एवं सवेदक दोनों प्रकार का होता है। निर्ग्रन्थ एवं स्नातकों में काम-वासना नहीं रहती, अतः ये दोनों अवेदक होते हैं। संयतों की दृष्टि से सामायिक संयत एवं छेदोपस्थापनीय संयत दोनों प्रकार के होते हैं, कुछ सवेदक होते हैं तथा कुछ अवेदक होते हैं। परिहार विशुद्धिक संयत सवेदक होता है, अवेदक नहीं। सूक्ष्म संपराय एवं यथाख्यात संयत अवेदक ही होते हैं, उनमें काम-वासना शेष नहीं रहती।
राग-द्वार के अनुसार पुलाक से लेकर कषाय कुशील तक के निर्ग्रन्थ सराग होते हैं जबकि निर्ग्रन्थ एवं स्नातक वीतराग होते हैं सामायिक संयत से लेकर सूक्ष्म संपराय तक के संयत सराग होते हैं, जबकि यथाख्यात संयत वीतराग होता है।
कल्प-द्वार के अन्तर्गत स्थितकल्पी, अस्थितकल्पी, जिनकल्पी, स्थविरकल्पी एवं कल्पातीत के आधार पर निर्ग्रन्थों एवं संयतों का विवेचन किया गया है।
चारित्र-द्वार के अन्तर्गत निर्ग्रन्थ के भेदों में संयतों के सामायिक आदि भेदों को घटित किया गया है तथा संयतों के भेदों में निर्ग्रन्थों के पुलाक आदि भेदों को घटित करने का विचार हुआ है। इसके अनुसार सामायिक संयत पुलाक से लेकर कषाय कुशील तक कुछ भी हो सकता है किन्तु वह निर्ग्रन्थ एवं स्नातक नहीं होता है। छेदोपस्थापनीय भी इसी प्रकार होता है। परिहारविशुद्धिक एवं सूक्ष्म संपराय संयतों में निर्ग्रन्थों का केवल कषाय कुशील भेद पाया जाता है। यथाख्यात संयत में निर्ग्रन्थ एवं स्नातक ये दो भेद ही पाए जाते हैं, अन्य तीन नहीं।
प्रतिसेवना-द्वार में मूलगुणों एवं उत्तरगुणों के प्रतिसेवक एवं अप्रतिसेवक की दृष्टि से विचार किया गया है। दोषों का सेवन करने को प्रतिसेवना तथा उनसे रहित होने को अप्रतिसेवना कहते हैं।
ज्ञान-द्वार में यह विचार किया गया है कि किस निर्ग्रन्थ या किस संयत में कितने एवं कौन-कौन से ज्ञान पाये जाते हैं। इसी द्वार के अन्तर्गत श्रुत के अध्ययन का भी विवरण है जिसके अनुसार पुलाक जघन्य नवम पूर्व की तीसरी आचार वस्तु पर्यन्त का अध्ययन करता है तथा उत्कृष्ट नौ पूर्व का अध्ययन करता है। बकुश, कुशील एवं निर्ग्रन्थ जघन्य आठ प्रवचन माता का अध्ययन करते हैं तथा उत्कृष्ट की दृष्टि से बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील तो दस पूर्वो का अध्ययन करते हैं तथा कषाय कुशील एवं निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वो का अध्ययन करते हैं। स्नातक श्रुतव्यतिरिक्त होते हैं। उनमें श्रुतज्ञान नहीं होता। सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत एवं सूक्ष्म संपराय संयत जघन्य आठ प्रवचन माता का तथा उत्कृष्ट चौदह पूर्व का अध्ययन करते हैं। परिहारविशुद्धिक संयत जघन्य नवम पूर्व की तृतीय आचार वस्तु पर्यन्त तथा उत्कृष्ट कुछ अपूर्ण दस पूर्व का अध्ययन करते हैं। यथाख्यात संयत जघन्य आठ प्रवचन माता का, उत्कृष्ट चौदह पूर्वो का अध्ययन करते हैं। वे श्रुतरहित अर्थात् केवलज्ञानी भी होते हैं।
तीर्थ, लिङ्ग, शरीर, क्षेत्र एवं काल द्वारों में इनसे सम्बद्ध विषयों पर निरूपण हुआ है। काल का विवेचन अधिक विस्तृत है।
गति-द्वार में यह निरूपण हुआ है कि कौन-सा संयत या निर्ग्रन्थ काल-धर्म को प्राप्त कर किस गति में व कहाँ उत्पन्न होता है। प्रायः सभी साधु देवलोक में उत्पन्न होते हैं और उनमें भी प्रायः वैमानिक देवलोक में उत्पन्न होते हैं।
संयम-द्वार के अनुसार पुलाक से लेकर कषाय कुशील तक असंख्यात संयम स्थान कहे गए हैं। निर्ग्रन्थों एवं स्नातकों का एक संयम स्थान माना गया है। सामायिक से लेकर परिहारविशुद्धिक संयतों तक असंख्य संयम स्थान होते हैं। सूक्ष्म संपराय संयत के अन्तर्मुहूर्त के समय जितने असंख्य संयम स्थान माने गए हैं। यथाख्यात संयत के एक संयम स्थान मान्य है। इसी द्वार में इनके संयम-स्थानों के अल्प-बहुत्व का विचार हुआ है।
सन्निकर्ष-द्वार में चारित्र पर्यवों का एवं उनके अल्प-बहुत्व का वर्णन है। योग-द्वार के अनुसार पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक के निर्ग्रन्थ सयोगी हैं जबकि स्नातक सयोगी भी हैं और अयोगी भी हैं। सामायिक संयत से लेकर सूक्ष्म संपराय तक के संयत सयोगी होते हैं तथा यथाख्यात संयत सयोगी भी होते हैं और अयोगी भी होते हैं। उपयोग-द्वार के अन्तर्गत पुलाक आदि पाँचों निर्ग्रन्थ तथा सूक्ष्म संपराय संयत को छोड़ कर चारों संयत साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। सूक्ष्म संपरायं संयत साकारोपयुक्त ही होता है, आनाकारोपयुक्त नहीं होता।
'कषाय-द्वार' के अनुसार निर्ग्रन्थ एवं स्नातक अकषायी होते हैं जबकि शेष तीनों सकषायी होते हैं। इसी प्रकार यथाख्यात संयत अकषायी होता है एवं शेष चारों संयत सकषायी होते हैं।