________________
संयत अध्ययन
७९१ संयतों अथवा साधुओं को आगमों में 'निर्ग्रन्थ' भी कहा गया है। किन्तु निर्ग्रन्थों का विवेचन भिन्न प्रकार से मिलता है। निर्ग्रन्थों के पाँच प्रकार हैं-(१) पुलाक, (२) बकुश, (३) कुशील, (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक।
पाँच प्रकार के चारित्रों के साथ यदि इन पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का विवेचन किया जाय तो ज्ञात होता है कि पुलाक, बकुश एवं प्रतिसेवना कुशीलों में सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय चारित्र पाया जाता है। कषायकुशीलों में परिहारविशुद्धि एवं सूक्ष्म संपराय चारित्र भी पाए जा सकते हैं। निर्ग्रन्थों एवं स्नातकों में एक मात्र यथाख्यात चारित्र पाया जाता है।
पुलाक वह निर्ग्रन्थ है जो मूलगुण तथा उत्तरगुण में परिपूर्णता प्राप्त न करते हुए भी वीतराग प्रणीत आगम से कभी विचलित नहीं होता है। पुलाक का अर्थ है निःसार धान्यकण। संयमवान् होते हुए भी जो साधु किसी छोटे से दोष के कारण संयम को किंचित् असार कर देता है वह पुलाक कहलाता है। पुलाक लब्धि का प्रयोक्ता निर्ग्रन्थ पुलाक कहा गया है। इसे लब्धि पुलाक कहते हैं। दूसरे प्रकार का पुलाक आसेवना पुलाक कहा जाता है। लब्धि पुलाक पाँच कारणों से पुलाक लब्धि का प्रयोग करने के कारण पाँच प्रकार का कहा गया है-१. ज्ञान पुलाक, २. दर्शन पुलाक, ३. चारित्र पुलाक, ४. लिंग पुलाक और, ५. यथासूक्ष्म पुलाक। ज्ञान पुलाक स्खलना, विस्मरण, विराधना आदि दूषणों से ज्ञान की किंचित् विराधना करता है। दर्शन पुलाक सम्यक्त्व की विराधना करता है। इसी प्रकार चारित्र को दूषित करने वाला चारित्र पुलाक कहा जाता है। अकारण ही अन्य लिंग या वेष को धारण करने वाला लिंग पुलाक कहलाता है। सेवन करने के अयोग्य दोषों को साधु-साध्वीयों की रक्षा करते हुए कोई सेवन करे तो उसे यथासूक्ष्म पुलाक कहते हैं।
बकुश वह श्रमण है जो आत्म-शुद्धि की अपेक्षा शरीर की विभूषा एवं उपकरणों की सजावट की ओर अधिक रुचि रखता है। यह स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि में श्रम नहीं करके खान-पान, शयन-आराम आदि की प्रवृत्ति करने लगता है। बकुश निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गए हैं-(१) आभोग बकुश, (२) अनाभोग बकुश, (३) संवृत बकुश, (४) असंवृत बकुश और (५) यथासूक्ष्म बकुश। साधुओं के लिए शरीर, उपकरण आदि को सुशोभित करना अयोग्य समझ कर भी जो दोष लगाता है वह आभोग बकुश है। जो न जानते हुए दोष लगाता है वह अनाभोग बकुश है। जो प्रकट रूप में दोषयुक्त प्रवृत्ति करते हैं वे असंवृत बकुश हैं। जो लोक लज्जा के कारण छिपकर शरीर की विभूषादि प्रवृत्तियों करता है वह संवृत बकुश है। जो आँखों में अंजन लगाने आदि अकरणीय सूक्ष्म कार्यों में समय लगाते हैं वे यथासूक्ष्म बकुश हैं। ___ कुशील का अर्थ है कुत्सित शील वाला। कुशील निर्ग्रन्थ के दो प्रकार हैं-(१) प्रतिसेवना कुशील और (२) कषाय-कुशील। जो साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लिंग एवं शरीर आदि हेतुओं से संयम के मूलगुणों या उत्तरगुणों में दोष लगाता है उसे प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। इन हेतुओं के आधार पर प्रतिसेवना कुशील के ५ भेद हैं-१. ज्ञान प्रतिसेवना कुशील, २. दर्शन प्रतिसेवना कुशील, ३. चारित्र प्रतिसेवना कुशील, ४. लिंग प्रतिसेवना कुशील और ५. यथासूक्ष्म प्रतिसेवना कुशील। ___ कषाय कुशील में मात्र संज्वलन कषाय की कोई प्रकृति पायी जाती है। यह ज्ञानादि हेतुओं से संज्वलन कषाय की प्रकृति में प्रवृत्त होता है किन्तु संयम के मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगाता है। ज्ञानादि हेतुओं के कारण इसके भी पाँच भेद हैं१. ज्ञान कषाय कुशील, २. दर्शन कषाय कुशील, ३. चारित्र कषाय कुशील, ४. लिंग कषाय कुशील और ५. यथासूक्ष्म कषाय कुशील। ___ पाँच निर्ग्रन्थों के निर्ग्रन्थ भेद में कषाय-प्रवृत्ति एवं दोषों के सेवन का सर्वथा अभाव होता है। इसमें सर्वज्ञता प्रकट होने वाली रहती है तथा राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है। निर्ग्रन्थ शब्द के वास्तविक अर्थ 'राग-द्वेष की ग्रन्थि से रहित' का इसमें पूर्णतः घटन होता है। यह निर्ग्रन्थ वीतराग होता है। समय की अपेक्षा से इसके पाँच भेद हैं-१. प्रथम समय निर्ग्रन्थ-११वें अथवा १२ गुणस्थान के काल के प्रथम समय में विद्यमान । २. अप्रथम समय निर्ग्रन्थ-११वें या १२वें गुणस्थान में दो समय से या उससे अधिक समय से विधमान। ३. चरम समय निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता एक समय शेष हो। ४. अचरम समय निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता दो या दो समय से अधिक शेष हो। ५. यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ-जो सामान्य निर्ग्रन्थ हो, प्रथम आदि समय की विवक्षा से भिन्न हो।
सर्वज्ञता-युक्त निर्ग्रन्थ 'स्नातक' कहे जाते हैं। यह निर्ग्रन्थों की सर्वोत्कृष्ट स्थिति है। स्नातक के भी पाँच भेद किए गए हैं-(१) अच्छवि, (२) अशबल, (३) अकाश, (४) संशुद्ध और (५) अपरिनावी। जो छवि अर्थात् शरीर भाव से रहित हो गया हो उसे अच्छवि कहते हैं। प्राकृत के अच्छवी का हिन्दी में अक्षपी शब्द भी हो सकता है जिसका तात्पर्य है कि चार घाती कर्मों का क्षपण करने के पश्चात् जिसे कुछ भी क्षपण करना शेष न रहा हो। अशबल का तात्पर्य है जिसमें अतिचार रूपी पंक बिलकुल भी न हो। घाती कर्मों से रहित होने के कारण अकर्माश, विशुद्ध ज्ञान-दर्शन को धारण करने के कारण संशुद्ध तथा कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित होने के कारण अपरिनावी नाम दिए गए
इन पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से प्रथम तीन साधक अवस्था में रहते हैं तथा अन्तिम दो वीतराग अवस्था में पाए जाते हैं। पुलाक एवं बकुश भेद दोषयुक्त साधुओं के लिए हैं। प्रतिसेवना कुशील भी दोषयुक्त है। कषाय कुशील तो सूक्ष्म कषाय युक्त होता है। पाँच प्रकार के चारित्रों के साथ इनकी तुलना या सम्बन्ध पर पहले विचार कर लिया गया है।