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संयत अध्ययन : आमुख
इस अध्ययन में संयतों एवं निर्ग्रन्थों की विस्तार से चर्चा है। संसार में कुछ जीव संयत होते हैं, कुछ असंयत होते हैं और कुछ संयतासंयत होते हैं। महाव्रतधारी साधुओं अथवा श्रमणों को संयत कहते हैं, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों को संयतासंयत कहते हैं तथा शेष सब (पहले से चौथे गुणस्थान तक के) जीव असंयत कहलाते हैं। इस दृष्टि से देव, नैरयिक, एवं एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सारे जीव असंयतों की श्रेणी में आते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव असंयत एवं संयतासंयत इन दो प्रकारों के होते हैं। मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं तथा संयतासंयत भी होते हैं। सिद्ध इन तीनों अवस्थाओं से रहित नो संयत, नो असंयत एवं नो संयतासंयत होते हैं।
संयत सर्वविरति चारित्र से युक्त होते हैं। चारित्र के पाँच भेदों के आधार पर संयत जीव पाँच प्रकार के कहे जाते हैं, यथा१. सामायिक संयत, २. छेदोपस्थापनीय संयत, ३. परिहारविशुद्धि संयत, ४. सूक्ष्म संपराय संयत और ५. यथाख्यात संयत।
१. सामायिक चारित्र के आराधक संयत को सामायिक संयत कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-१. इत्वरिक और २. यावत्कथिक। प्रथम एवं अंतिम तीर्थकर के शासनकाल में छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा) के पूर्व जघन्य सात दिन, मध्यम चार मास एवं उत्कृष्ट छह मास तक जिस सामायिक चारित्र का पालन किया जाता है उसे इत्वरिक सामायिक चारित्र कहते हैं। बीच के बाबीस तीर्थङ्करों के शासनकाल में जीवनपर्यन्त के लिए सामायिक चारित्र ग्रहण किया जाता है उसे यावत्कथिक सामायिक चारित्र कहते हैं। इन तीर्थङ्करों के शासन में एवं महाविदेह क्षेत्र में छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जाता।
२. जो संयत छेदोपस्थापनीय चारित्र से युक्त होते हैं उन्हें छेदोपस्थापनीय संयत कहते हैं। इस चारित्र को आजकल बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है। किन्तु मूलगुणों का घात करने वाले साधुओं को पुनः महाव्रतों में अधिष्ठित करने के लिए भी छेदोपस्थापनीय चारित्र का महत्व है। इस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद तथा महाव्रतों का उपस्थापन या आरोपण होता है, इसलिए इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहा जाता है। यह चारित्र दो प्रकार का होता है-१. सातिचार और २. निरतिचार। इत्वरिक सामायिक चारित्र वाले साधु के तथा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के महाव्रतों का आरोपण निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है तथा मूलगुणों का घात करने वाले साधु का पुनः महाव्रतों में आरोपण सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहा जाता है।
३. परिहारविशुद्धि चारित्र से युक्त संयत परिहारविशुद्धि संयत कहलाते हैं। इस चारित्र में परिहार अर्थात् तप विशेष से कर्मनिर्जरा रूप शुद्धि होती है। इस चारित्र का धारक संयत मन, वचन और काया से उत्कृष्ट धर्म का पालन करता हुआ आत्म-विशुद्धि को अपनाता है। परिहारविशुद्धि चारित्र की विशेषावश्यक भाष्य आदि में एक लम्बी प्रक्रिया बतायी गई है जिसमें नौ साधुओं का एक गच्छ मिलकर यह साधना करता है। नौ साधुओं में से चार साधु तप करते हैं, एक साधु प्रमुखता करता है तथा शेष चार साधु वैयावृत्य करते हैं। यह प्रक्रिया छह मास तक चलती है। दूसरे छह मास में वैयावृत्य करने वाले साधु तप करते हैं तथा तप करने वाले वैयावृत्य करते हैं। तीसरे छह माह में प्रमुख व्याख्याता साधु तप करता है, एक अन्य साधु प्रमुखता करता है तथा सात साधु उनकी सेवा करते हैं। इस प्रकार परिहारविशुद्धि चारित्र की प्रक्रिया १८ मास तक चलती है। यह चारित्र दो प्रकार का होता है-१. निर्विश्यमानक और २. निर्विष्टकायिक। इस चारित्र को अपनाने वाले साधु निविश्यमानक तथा उनसे अभिन्न यह चारित्र निर्विश्यमानक कहलाता है। जिन्होंने इस चारित्र का आराधन कर लिया है वे साधु निर्विष्टकायिक कहलाते हैं तथा उनसे अभिन्न चारित्र निर्विष्टकायिक कहा जाता है।
४. चौथा चारित्र सूक्ष्म संपराय है तथा इस चारित्र से युक्त साधु सूक्ष्म संपराय संयत कहलाते हैं। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है क्योंकि इसमें संज्वलन लोभ नामक सूक्ष्म कषाय शेष रहता है। इस चारित्र के दो प्रकार हैं-१. संक्लिश्यमानक और २. विशुद्धयमानक। संक्लिश्यमानक सूक्ष्म संपराय चारित्र उपशमश्रेणी से गिरते हुए साधु के होता है तथा विशुद्धयमानक चारित्र क्षपकश्रेणी एवं उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले साधु के होता है।
५. मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण होने पर जो छमस्थ या जिन होता है वह यथाख्यात संयत कहलाता है। यह 'यथाख्यात चारित्र' से युक्त होता है। यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। इस चारित्र के दो भेद हैं-१. छद्मस्थ, २. केवली। जब यह ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती छमस्थ में होता है तब छमस्थ यथाख्यात चारित्र कहा जाता है और जब यह केवली में होता है तो केवली यथाख्यात चारित्र के नाम से जाना जाता है।
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