Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १२ : उ. ७ : सू. १३५-१४२ नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक के रूप में उपपन्न-पूर्व हैं ?
हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार । १३६. भंते ! क्या यह जीव शर्कराप्रभा-पृथ्वी के पच्चीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले....? इसी प्रकार जैसे-रत्नप्रभा-पृथ्वी की वक्तव्यता है वैसे ही दो आलापक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभा की वक्तव्यता। १३७. भंते ! क्या यह जीव तमःप्रभा-पृथ्वी के निन्यानवें हजार नौ सौ पिचानवें नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उपपन्न-पूर्व है?
शेष वर्णन पूर्ववत्। १३८. भंते ! क्या यह जीव अधःसप्तमी-पृथ्वी के पांच अनुत्तर विशालतम महानरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले.....?
शेष वर्णन रत्नप्रभा की भांति वक्तव्य है। १३९. भंते ! क्या यह जीव चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, आसन, शयन, भांड, अमत्र और उपकरण के रूप में उपपन्न-पूर्व है? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। भंते! सब जीवों के लिए भी। पूर्ववत् वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् स्तनित-कुमारों तक। उनके आवासों में नानात्व है, आवास पहले शतक (भ. १/२११-२१५) में कहे जा चुके हैं। १४०. भंते ! क्या यह जीव असंख्येय लाख पृथ्वीकायिकावासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक
आवास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में उपपन्न-पूर्व
हां गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार। इसी प्रकार सब जीव भी वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों में। १४१. भंते ! क्या यह जीव असंख्येय लाख द्वीन्द्रियावासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में और द्वीन्द्रियकायिक के रूप में उपपन्न-पूर्व है? हां गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार। इसी प्रकार सब जीव भी वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों में, इतना विशेष है-त्रीन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिक और त्रीन्द्रिय के रूप में, चतुरिन्द्रियों में चतुरिन्द्रिय के रूप में, पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों में पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक के रूप में, मनुष्यों में मनुष्य के रूप में, शेष द्वीन्द्रियों की भांति वक्तव्य है। वानमंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशानों में असुरकुमारों की भांति वक्तव्यता। १४२. भंते ! क्या यह जीव सनत्कुमार-कल्प के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, देव के
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