Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १२ : उ. ६,७ : सू. १२८-१३० कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से उठती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था। उस पर शरीर-प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, सिर और पैर–दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत और गम्भीर था। गंगातट की बालुका की भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था। वह परिकर्मित क्षौम-दुकूल-पट्ट से ढका हुआ था। उसका रजस्त्राण (चादरा) सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म-वस्त्र, कपास, बूर-वनस्पति और नवनीत के समान मृदु था। प्रवर सुगंधित कुसुम-चूर्ण के शयन-उपचार से कलित था। उसकी भार्या मूर्तिमान शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण तथा विलास और लालित्य-पूर्ण संलाप में निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, यौवन और विलास से कलित, अनुरक्त, अत्यधिक प्रिय और मनोनुकूल भार्या के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध इन पांच प्रकार के मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है। गौतम ! वह पुरुष व्यवशमन-काल (रति के अवसान के समय) में कैसा सात-सौख्य का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है?
आयुष्मन् श्रमण ! प्रधान। गौतम ! उस पुरुष के कामभोगों से वाणमन्तर-देवों के कामभोग अनन्त-गुणा विशिष्टतर होते हैं। वाणमन्तर-देवों के कामभोगों से (असुरेन्द्र को छोड़कर) भवनवासी-देवों के कामभोग अनन्त-गुणा विशिष्टतर होते हैं, असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी-देवों के कामभोगों से असुरकुमार-देवों के कामभोग अनन्त-गुणा विशिष्टतर होते हैं। असुरकुमार-देवों के कामभोगों से ग्रह-गण-, नक्षत्र- और तारा-रूप ज्योतिष-देवों के कामभोग अनन्त-गुणा विशिष्टतर होते हैं। ग्रह-गण-, नक्षत्र- और तारा-रूप ज्योतिष-देवों के कामभोगों से ज्योतिषेन्द्र, ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य के कामभोग अनन्त-गुणा विशिष्टतर होते हैं। गौतम! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं। १२९. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे।
सातवां उद्देशक
जीवों का सर्वत्र जन्म-मृत्यु-पद १३०. उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते ! लोक कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? गौतम! लोक विशालतम प्रज्ञप्त है-पूर्वदिशा में असंख्येय क्रोड़ाक्रोड़ योजन, दक्षिण दिशा में
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