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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । निःसंगः, निष्क्रियः, असि, त्वम्, स्वप्रकाशः, निरञ्जनः, अयम्, एव, हि, ते, बन्धः, समाधिम्, अनुतिष्ठसि ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। त्वम्-तू
ते-तेरा निःसंगः-संग-रहित है
बन्धः बंधन है निष्क्रिया-क्रिया-रहित है
हिजो स्वप्रकाशः स्वयं प्रकाश-रूप है निरञ्जनः निर्दोष है
समाधिम् समाधि को अयम्एव=यही
| अनुतिष्ठसि अनुष्ठान करता है ।
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! तू नि:संग है अर्थात् सबके सम्बन्ध से तू रहित है और क्रिया से भी त रहित है। सम्बन्ध से रहित और क्रिया से रहित आत्मा की प्राप्ति के लिये जो समाधि का अनुष्ठान करना है, उसी का नाम बन्ध है । जो स्वप्रकाश आत्मा का ध्यान, जड-वत्ति का निरोध करके करता है, उससे बढ़कर और कोई बन्ध नहीं है, और न कोई अज्ञान है । आत्मा के स्वरूप के ज्ञान से भिन्न, जितने मुक्ति के उपाय कहे गए हैं, वे सब बंध के ही कारण हैं, किन्तु सब बन्ध-रूप ही हैं ।। १५ ।।।
अब अष्टावक्रजी जनक की विपरीति बुद्धि के दूर करने के निमित्त उपदेश करते हैं
मूलम् । त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः । शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मागमः क्षुद्रचित्तताम् ॥ १६ ॥