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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
हूँ। एवं मुझसे अन्य दूसरा कोई नहीं है कि उसको नमस्कार करूँ॥ १३ ॥
अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किञ्चन । अथवा यस्य मे सर्वं यद्वाङ मनसगोचरम् ॥ १४ ॥
पदच्छेदः । अहो, अहम्, नम:, मह्यम्, यस्य, में, न, अस्ति, किञ्चन, अथवा, यस्य, मे, सर्वम्, यत, वाङ मनसगोचरम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। अहम्-मैं
अस्ति है अहो आश्चर्य-रूप हूँ
अथवा-या
यस्य-जिस मह्यम्=मुझको
मे-मेरे का नमः नमस्कार है
+ तत्व ह यस्य-जिस
सर्वम्-सब है मे मेरे का
यत् जो कुछ किञ्चन-कुछ
वाङ मनस-1 _वाणी और मन न-नहीं
गोचरम् । का विषय है ।
भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि मेरे में सम्बन्धवाला कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि वास्तव में कोई पदार्थ सत्य नहीं है, केवल एक ब्रह्मात्मा ही परमार्थ से सत्य है ।
नेह नाना नास्ति किञ्चन ।
इस चेतन आत्मा में नानारूप करके जो जगत् प्रतीत होता है, सो वास्तव में नहीं है-ऐसे श्रुति कहती है।