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सत्रहवां प्रकरण ।
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भावार्थ । हे शिष्य ! जिस पुरुष का संसार-सागर क्षीण हो गया है, उसको विषय-भोगों की इच्छा भी नहीं रहती है, और न उनसे विरक्त होने की इच्छा उसको रहती है । उस विद्वान् का मन और शरीरेन्द्रियादिक बालक या उन्मत्त की तरह अपने व्यापारों से शन्य रहते हैं, और उसके शरीर की चेष्टा भी वथा ही होती है। उसकी इन्द्रियां भी सब निर्बल होती हैं। आगे स्थित हुए विषयों का निर्णय नहीं कर सकता है । गीता में भी कहा है
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ १ ॥
सम्पूर्ण भूतों की जो आत्मज्ञान-रूपी रात्रि है, और जिसमें सब भूत सोए हुए हैं, उसमें विद्वान् जागता है । जिस अज्ञान-रूपी दिन में सब भूत जागते हैं, उसमें विद्वान् सोया हुआ रहता है ।। ९॥
मूलम् । न जागति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति । अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः ॥ १०॥
पदच्छेदः। न, जागति, न, निद्राति, न, उन्मीलति, न, मील ति, अहो, परदशा, क्व, अपि, वर्तने, मुक्तचेतसः ।