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३८८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० निरवयव आत्मा का प्रारब्ध-कर्म कहाँ है ? जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति कहाँ है, किन्तु कोई भी वास्तव में नहीं है ॥४॥
मूलम् । क्व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्क्रियं स्फुरणं क्व वा। क्वापरोक्षं फलं वा क्वा निःस्वभावस्य मे सदा ॥५॥
पदच्छेदः । क्व, कर्ता, क्व, च, वा, भोक्ता, निष्क्रियम्, स्फुरणम्, क्व, वा, क्व, अपरोक्षम्, फलम्, वा, क्व, निःस्वभावस्य, मे, सदा ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। सदा-सदा
निष्क्रियम्-क्रिया-रहित है ? निःस्वभावस्य-स्वभाव-रहित
वा अथवा मे-मुझको
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
स्फुरणम्-स्फुरण है ? कर्ताकर्तापना है ?
वा अथवा च और
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
अपरोक्षम् प्रत्यक्ष ज्ञान है ?
वा-अथवा भोक्ता-भोक्तापना है ?
क्व-कहाँ वा-अथवा
विषयाकारवृत्त्यक्व-कहाँ
भावार्थ । जो मैं स्वभाव से रहित हूँ उस मेरे में कर्तृत्वकर्म कहाँ है ? और भोक्तृत्वकर्म कहाँ है ? अर्थात् कर्तापना और भोक्तापना दोनों मेरे में नहीं हैं। क्योंकि क्रिया से
फलम्-१ वच्छिन्न चेतन है ।।