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३९२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० नहीं हो सकती है । और प्रभा जो वृत्तिज्ञान है, वह भी नहीं है। क्योंकि वृत्ति-ज्ञान अन्तःकरण का धर्म है, सो अन्तःकरण ही उस में नहीं है । वह शुद्ध-स्वरूप आत्मा है ॥ ८ ॥
क्व विक्षेपः क्व चैकानचं क्व निर्बोधः क्व मूढ़ता। क्व हर्षः क्व विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥
पदच्छेदः । क्व, च, एषः, व्यवहारः, वा, क्व, च, सा, परमार्थता, क्व, सुखम्, क्व, च, वा, दुःखम्, निविमर्शस्य, मे, सदा ॥ अन्वयः । शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । ___ सर्वदा सर्वदा
निर्बोधः-ज्ञान है ? निष्क्रियस्य-क्रिया-रहित
क्व-कहाँ मे-मुझको
मूढ़ता-मूढ़ता है ? क्व कहाँ
क्व-कहाँ विक्षेपः-विक्षेप है
हर्षः हर्ष है ? च और क्व कहाँ
वा और एकाग्रयम् एकाग्रता है ?
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
विषादः शोक है ?
___ भावार्थ । शिष्य कहता है कि हे गुरो ! सर्वदा क्रिया से रहित जो मेरा स्वरूप है, उसमें एकाग्रता कहाँ है ? जहाँ पर प्रथम विक्षेप होता है वहाँ पर विश्वेप की निवृत्ति के लिये एकाग्रता