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३७८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
दृष्टांत-उत्तीर्णे तु गते पारे नौकायाः किं प्रयोजनम् ।
जब कि पुरुष नदी के परलेपार उतर जाता है, तब नौका का भी कुछ प्रयोजन नहीं रहता है। इसी तरह द्वैत का जब आत्मज्ञान करके बाध हो जाता है, तब फिर द्वैत के साथ अद्वैत का भी कुछ प्रयोजन नहीं रहता है, क्योंकि अद्वैत भी द्वैत की अपेक्षा करके कहा जाता है । जब द्वैत न रहा, तब अद्वैत कहना भी व्यर्थ ही है । इस वास्ते द्वैत और अद्वैत दोनों मेरे में नहीं हैं ।। २ ॥
मूलम्। क्व भूतं भविष्यद्वा वर्तमानमपि क्व वा । क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥३॥
पदच्छेदः । क्व, भूतम्, क्व, भविष्यत्, वा, वर्तमानम्, अपि, क्व, वा, क्व, देशः, क्व, च, वा, नित्यम्, स्वमहिम्नि, स्थितस्य, मे।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । नित्यम् नित्य
भविष्यत् भविष्यत् है ? स्वमहिम्नि अपनी महिमा में
वा अथवा स्थितस्य=स्थित हुए
क्व कहाँ मेमुझको
वर्तमानम् अपि वर्तमान भी है ? क्व-कहा
वा अथवा भूतम् भूत है ?
क्व कहाँ क्व कहाँ
देशः देश है ?
भावार्थ । शिष्य कहता है कि हे गुरो ! काल का भी मेरे को स्फुरण