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उन्नीसवाँ प्रकरण ।
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मूलम् । क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकता । क्व द्वैतं क्व च वाऽद्वैतं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥२॥
पदच्छेदः । क्व, धर्मः, क्व, च, वा, कामः, क्व, च, अर्थः, क्व, विवेकता; क्व, द्वैतम्, क्व, च, वा, अद्वैतम्, स्वमहिम्न, स्थितस्य, मे ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। स्वमहिम्नि-अपनी महिमा में |
च और स्थितस्य स्थित हुए
क्व-कहाँ मे मुझको
अर्थः अर्थ है ?
वा अथवा क्व कहाँ
क्व कहाँ धर्मः धर्म है ?
द्वैतम्-द्वैत है ? च-और
वा अथवा क्व-कहाँ
क्व-कहाँ कामः काम है ?
अद्वैतम्-अद्वैत है ?
भावार्थ । शिष्य कहता है कि मेरे को धर्म कहाँ है ? और काम कहाँ है ? मैंने धर्म, अर्थ, और काम को अपने हृदय से निकाल दिया है । क्योंकि ये सब विनाशी हैं, और जो मैं अपनी महिमा में स्थित है, तो मेरे को विवेक कहाँ ? विवेक से भी मेरा कुछ प्रयोजन नहीं है, और चेतन आत्मा में जो विश्रान्ति को प्राप्त हुआ है, उसको द्वैत और अद्वैत से भी कुछ प्रयोजन नहीं है।