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उन्नीसवाँ प्रकरण।
नानाविधपरा- नाना प्रकार के
मर्शशल्योद्धारः ) का उद्धार
मूलम् । तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय हृदयोदरात् । नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतो मया ॥१॥
पदच्छेदः । तत्त्वविज्ञानसंदंशम्, आदाय, हृदयोदरात्, नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः, कृतः, मया । अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। भवतः आपसे तत्त्वविज्ञान- तत्त्वज्ञानरूप
विचार-रूपबाण संदंशम् । संसी को आदाय ले करके
मया-मुझ करके हृदयोदरात्-हृदय और उदर से | कृतः=किया गया है ।
भावार्थ । अब एकोनविंशति प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं
शिष्य गुरु के मुख से तत्त्व-ज्ञानी की स्वाभाविक शान्ति को श्रवण करके, अपने को कृतार्थ मानकर, अब गुरु के तोष के लिये अपनी शान्ति को आठ श्लोकों द्वारा कहता है ।
हे गुरो ! मैंने आपके सकाश से तत्त्वज्ञान के उपदेश की संसीरूपी शास्त्र द्वारा अपने हृदय से नाना प्रकार के संकल्पों और विकल्पों को निकाल दिया है ॥ १ ॥