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३८० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० है ? अर्थात् आत्मा और अनात्मा का व्यवहार अज्ञानी मूर्ख की दृष्टि में होता है। और शुभ कहाँ है ? और अशुभ कहाँ है ? चिन्ता और अचिन्ता कहाँ है ? किन्तु केवल चेतन ही अपनी महिमा में स्थित है ।। ४ ॥
मूलम् । क्व स्वप्नः क्व सुषुप्तिर्वा क्व च जागरणं तथा । क्व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्निस्थितस्य मे ॥५॥
पदच्छेदः । क्व, स्वप्नः, क्व, सुषुप्तिः , वा, क्व, च, जागरणम्, तथा, क्व, तुरीयम्, भयम्, वा, अपि, स्वमहिम्नि, स्थितस्य, मे ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । स्वमहिम्नि=अपनी महिमा में
तथा और स्थितस्य स्थित हुए
जागरणम् जाग्रत् है ? मे मुझको
क्व कहाँ क्व कहाँ
तुरीयम्=तुरीय है ? स्वप्नः स्वप्न है ?
अपि और च और
वा=अथवा क्व कहाँ
क्व कहाँ सुषुप्तिः सुषुप्ति है ?
भयम्=भय है ?
भावार्थ । हे गुरो ! मेरी दृष्टि में जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति ये तीनों अवस्थाएँ भी नहीं हैं; क्योंकि ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धि के धर्म हैं, सो बुद्धि ही मिथ्या भान होती है । तुरीय अवस्था
वा-अथवा