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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ ज्ञानी ज्ञानी
च और वन्द्यमानः स्तुति किया हुआ
मरणे मरण में न नहीं
न व कभी नहीं प्रीयते प्रसन्न होता है उद्विजति-उद्वेग करता है च और
च और निन्द्यमानः निन्दा किया हुआ जीवने जीवन में न नहीं
न-नहीं कुप्यति कोप करता है । अभिनन्दति हर्ष करता है ।
भावार्थ । जीवन्मुक्त ज्ञानी इतर पुरुषों द्वारा स्तुति को प्राप्त हुआ भी हर्ष को नहीं प्राप्त होता है, और इतर पुरुषों द्वारा निन्दा किया हुआ भी क्रोध को नहीं प्राप्त होता है; और • मृत्यु के आने पर भी वह भय को भी नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि उसकी दृष्टि में आत्मा नित्य है; जन्म-मरण कोई वस्तु नहीं है । उसको अधिक जीने की न इच्छा है, न मरने का शोक है, वह सदा एकरस है ।। ९९ ॥
मूलम् । न धावति जनाकीर्णं नारण्यमुपशान्तधीः । यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते ॥ १०० ॥
पदच्छेदः । न, धावति, जनाकीर्णम्, न, अरण्यम्, उपशान्तधीः, यथा, तथा, यत्र, तत्र, समः, एव, अवतिष्ठते ।।