Book Title: Astavakra Gita
Author(s): Raibahaddur Babu Jalimsinh
Publisher: Tejkumar Press

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Page 380
________________ अठारहवाँ प्रकरण । ३७३ यथास्थि- कमानुसार यथा कृतकर्त-- (किये हुए और व्यनिवतः-२ करने योग्य कर्म में | अन्वयः। शब्दार्थ।। अन्वयः। शब्दार्थ। मुक्तः ज्ञानी समः-सम है च-और -२ प्राप्ति वस्तु में स्वस्थ वैतृष्णात्-तृष्णा के अभाव से तस्वस्थः (चित्तवाला है अकृतम् नहीं किए हुए च और कृतम्-किए हुए संतोषवान कर्म-कर्म को सर्वत्र सर्वत्र न स्मरति नहीं स्मरण करता है । भावार्थ । जीवन्मुक्त को प्रारब्ध के वश से जैसी स्थिति प्राप्त होती है, उसी में स्वस्थचित्तवाला ही वह रहता है। वह उद्वेग को कदापि नहीं प्राप्त होता है, और पूर्व किए हुए तथा आगे करनेवाले दोनों कर्मों में संतुष्ट चित्त ही रहता है, क्योंकि उसमें हठ अर्थात् आग्रह किसी प्रकार का भी नहीं है, इसी वास्ते वह किए हुए और न किए हुए कर्मों का स्मरण भी नहीं करता है । ९८ ।। मूलम् । न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति । नवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति ॥ ९९ ॥ पदच्छेदः । न, प्रीयते, वन्द्यमानः, निन्द्यमानः, न, कुप्यतिः,न, एव, उद्विजति, मरणे, जीवने, न, अभिनन्दति ।।

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