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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
जडः = जड़ है
पाण्डित्ये = पंडिताई में
अपि = भी
न = नहीं
समाधिमान् = समाधिवान् है जाड्ये = जड़ता में
अपि = भी
न=नहीं
न=नहीं
पण्डितः = पंडित है ||
भावार्थ ।
संसार में ज्ञानवान् पुरुष धन्य है क्योंकि लोक - दृष्टि द्वारा उसको विक्षेप होने पर भी वह विक्षिप्त नहीं होता है । क्योंकि उसको स्वप्रकाश आत्मा का अनुभव हो रहा है, और लोक- दृष्टि करके वह समाधि में भी स्थित है । परन्तु वास्तव में वह समाधि में स्थित भी नहीं है, क्योंकि उसको कर्तृत्वाध्यास नहीं है । फिर वह लोक-दृष्टि द्वारा जड़ प्रतीत होता है, क्योंकि जड़ की तरह वह विचरता है। परन्तु वास्तव में वह आत्म-दृष्टि होने से जड़ नहीं है ।
फिर वह लोक- दृष्टि करके पंडित प्रतीत होता है, परन्तु वह पंडित भी नहीं है, क्योंकि उसको अभिमान नहीं है, इन्हीं हेतुओं से वह जीवन्मुक्त धन्य हैं ।। ९७ ।।
मूलम् ।
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्त्तव्यनिर्वृतिः ।
समः सर्वत्र वैतृष्णान स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ९८ ॥ पदच्छेदः ।
मुक्त:, यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतिः समः, सर्वत्र, वैतृष्णात्, न, स्मरति, अकृतम्, कृतम् ॥
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