SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७२ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० जडः = जड़ है पाण्डित्ये = पंडिताई में अपि = भी न = नहीं समाधिमान् = समाधिवान् है जाड्ये = जड़ता में अपि = भी न=नहीं न=नहीं पण्डितः = पंडित है || भावार्थ । संसार में ज्ञानवान् पुरुष धन्य है क्योंकि लोक - दृष्टि द्वारा उसको विक्षेप होने पर भी वह विक्षिप्त नहीं होता है । क्योंकि उसको स्वप्रकाश आत्मा का अनुभव हो रहा है, और लोक- दृष्टि करके वह समाधि में भी स्थित है । परन्तु वास्तव में वह समाधि में स्थित भी नहीं है, क्योंकि उसको कर्तृत्वाध्यास नहीं है । फिर वह लोक-दृष्टि द्वारा जड़ प्रतीत होता है, क्योंकि जड़ की तरह वह विचरता है। परन्तु वास्तव में वह आत्म-दृष्टि होने से जड़ नहीं है । फिर वह लोक- दृष्टि करके पंडित प्रतीत होता है, परन्तु वह पंडित भी नहीं है, क्योंकि उसको अभिमान नहीं है, इन्हीं हेतुओं से वह जीवन्मुक्त धन्य हैं ।। ९७ ।। मूलम् । मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्त्तव्यनिर्वृतिः । समः सर्वत्र वैतृष्णान स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ९८ ॥ पदच्छेदः । मुक्त:, यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतिः समः, सर्वत्र, वैतृष्णात्, न, स्मरति, अकृतम्, कृतम् ॥ "
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy