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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
मूलम् ।
न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान् । न मुमुक्षुर्न वा मुक्तो न किञ्चिन्नच किञ्चन ॥ ९६ ॥ पदच्छेदः ।
न, सुखी, न, च, वा, दुःखी, न, विरक्तः, न, संगवान्, न, मुमुक्षुः, न, वा, मुक्तः, न किञ्चित् न, च, किञ्चन ॥ शब्दार्थ | अन्वयः ।
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
३७०
ज्ञानी = ज्ञान
न=न
सुखी = सुखी है च वा= और
नन्न
दुःखी दुःखी है
नः=न
विरक्तः = विरक्त है
नन
संगवान् = संगवान् है
न=न
मुमुक्षुः- मुमुक्षु है न वा=अथवा न मुक्तः = मुक्त है नकिञ्चित् = न कुछ है
न च =और न किञ्चन = किंचन है ॥
भावार्थ |
जीवन्मुक्त ज्ञानी लोक दृष्टि से तो वह विषय-भोगों द्वारा बड़ा सुखी प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में वह विषय जन्य सुख से रहित है और फिर लोक - दृष्टि से शारीरिकादिक रोग करके दुःखी भी प्रतीत होता है, परन्तु आत्मदृष्टि से वह रोगादिकों से रहित ही है । क्योंकि अन्तःकरणादिकों के साथ उसका अध्यास नहीं रहा है ।
प्रश्न - अध्यास किसको कहते हैं ?
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