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अठारहवाँ प्रकरण ।
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अन्वयः।
मूलम् । ज्ञः सचिन्तोऽपिनिश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपिनिरिन्द्रियः । सबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहंकृति ॥ ९५ ॥
पदच्छेदः। ज्ञः,सचिन्तः, अपि, निश्चिन्तः, सेन्द्रियः, अपि, निरिन्द्रियः, सबुद्धिः, अपि, निर्बुद्धिः, साहंकारः, अनहंकृतिः ॥ शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ। ज्ञः ज्ञानी
सबुद्धिः बुद्धि-सहित सचिन्तः चिन्ता-रहित
___ अपि भी अपि भी निश्चिन्तः चिन्ता-रहित है
निर्बुद्धिः बुद्धि-रहित है सेन्द्रियः इन्द्रियों-सहित
साहंकारः अहंकार-सहित अपि भी
अपि भी निरिन्द्रियः इन्द्रिय-रहित है । अनहंकृतिः अहंकार-रहित है ।।
भावार्थ । ज्ञानवान् जीवन्मुक्त लोगों की दृष्टि में चिन्ता-युक्त प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में वह चिन्ता-रहित है। लोक-दष्टि से वह इन्द्रियों के सहित है, वास्तव में वह निरिन्द्रिय है। लोगों की दृष्टि में वह बुद्धि-युक्त प्रतीत होता है। वास्तव में वह बुद्धि-रहित है। लोगों की दृष्टि में अहंकार के सहित है, वास्तव में वह अहंकार-रहित है। क्योंकि सर्वत्र ही उसकी आत्म-दृष्टि है। जो अपने आपमें आनन्द है, वह और किसी में देखता नहीं है ।। ९५ ।।