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अठारहवाँ प्रकरण ।
पदच्छेदः । आत्मविश्रान्तितृप्तेन, निराशेन, गतातिना, अन्तः, यत्, अनुभूयेत, तत्, कथम्, कस्य, कथ्यते ।। अन्वयः। शब्दार्थ । अन्वयः ।
शब्दार्थ। आत्मविश्रान्ति- आत्मा में विश्राम यत्-जो ।
तृप्तेन । कर तृप्त हुए अनुभूयेत अनुभव होता है चऔर
तत्-सो निराशेन=आधार-रहित हुए
किस याने किस
कस्य- 1 अधिकारी के प्रति गतातिना ज्ञानी के
कथम् कैसे अन्तः=अभ्यन्तर
कथ्यते-कहा जावे ॥
भावार्थ । जो विद्वान् अपने आत्मा में तृप्त है, वह शान्त है; संसार से निराश है। जो आनन्द वह अपने अन्तःकरण में अनुभव करता है; वह उस आनन्द को लोगों के प्रति कह नहीं सकता है। क्योंकि उसके तुल्य दूसरा कोई आनन्द उसको नहीं मिलता है।
दृष्टांत-एक कुमारी कन्या ने विवाहिता कन्या से पूछा कि पति के साथ संभोग में कैसा आनन्द है ? उसने कहा; वह आनन्द मैं कह नहीं सकती हूँ। उस आनन्द की उपमा कोई नहीं है। जब तू विवाही जावेगी; तब आप ही तु जान लेगी। क्योंकि वह स्वसंवेद्य है वैसे ज्ञानवान का आनंद भी स्वसंवेद्य है; वह वाणी द्वारा कहा नहीं जा सकता है ।। ९३ ॥