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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
शब्दार्थ ।
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः । निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः ॥ ९२ ॥
पदच्छेदः। क्वः, स्वाच्छन्द्यम्, क्व, संकोच:, वा, तत्त्वविनिश्चयः, निर्व्याजार्जवभूतस्य, चरितार्थस्य, योगिनः ।। अन्वयः।
शब्दार्थ । । अन्वयः। निर्व्याजार्जव-_ निष्कपट और । स्वाच्छन्द्यम् स्वतन्त्रता है भूतस्य । सरल-रूप
क्व-कहाँ च और
संकोचः-संकोच है चरितार्थस्य यथोचित
वा अथवा योगिनः-योगी को
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
तत्त्वविनिश्चयः तत्त्व का निश्चय है ।।
भावार्थ। जो निष्कपट योगी है, कोमल स्वभाववाला है, आत्मनिष्ठावाला है, पूर्णार्थी है, स्वेच्छा-पूर्वक आचारवाला है, उसको संकोच कहाँ है ? और वृत्त्यादि संचरण कहाँ है ? उसको कर्तृत्व कहाँ है ? कहीं नहीं है; क्योंकि पदार्थों में उसका अध्यास नहीं है ॥ ९२ ॥
मूलम् । आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना । अन्तर्यदनुभयेत तत्कथं कस्य कथ्यते ॥ ९३ ॥