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अठारहवाँ प्रकरण |
उत्तर- सत्यानृतवस्त्वभेदप्रतीतिरध्यासः ।
सत्य वस्तु और मिथ्या वस्तु की जो अभेद प्रतीति है, उसी का नाम अध्यास हैं, सो सत्य वस्तु आत्मा है, और मिथ्या वस्तु अन्तःकरण हैं, इन दोनों की अभेद प्रतीति अज्ञानी को होती है, इसी वास्ते अन्तःकरण के धर्म जो सुख-दुःखादिक हैं, उनको वह अपने में मानता है, इसी से वह सुखी - दुःखी होता है । ज्ञानी का अध्यास रहा नहीं इसी वास्ते वह सुख - दुःखादिकों को अन्तःकरण में मानता है, अपने में नहीं मानता है । इसी कारण वह सुख - दुःखादिकों से रहित ही रहता है । ऐसा जीवन्मुक्त विरक्त भी नहीं है, क्योंकि उसका विषयों में द्वेष नहीं है, और वह मुक्त भी नहीं है, क्योंकि प्रथम से ही उसको बन्ध नहीं है । यदि बन्ध होता, तब वह मुक्त भी होता । बन्ध उसको न था, न है, ज्यों का त्यों अपने आपमें स्थित है ।। ९६ ॥
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मूलम् । विक्षेsपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान् । जाड्योऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः ॥ ९७ ॥ पदच्छेदः ।
विक्षेपे, अपि, न, विक्षिप्तः, समाधौ न, समाधिमान्, जाड्यो, अपि, न, जडः, धन्यः, पाण्डित्ये, अपि, न, पण्डितः ॥ शब्दार्थ । अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
धन्यः = ज्ञानी विक्षेपे= विक्षेप में अपि = भी
न=नहीं विक्षिप्तः = विक्षेपवान् है समाधौ = समाधि में