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२७८ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भाव नहीं होता है। जैसे मनोराज स्वप्न के पदार्थ सब संकल्प मात्र हैं, वैसे जाग्रत् के पदार्थ भी सब संकल्प-मात्र हैं। संकल्प के दूर होने से संसार-रूपी ताप भी दूर हो जाता है। संकल्पों का नाश ही मोक्ष का हेतु है ।। ४ ।।
मूलम् । न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् । निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥ ५॥
पदच्छेदः । न, दूरम, न, च, संकोचात्, लब्धम, एव, आत्मनः, पदम्, निर्विकल्पम्, निरायासम्, निविकारम्, निरञ्जनम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। आत्मनः आत्मा का
संकोचात् (संकोच से प्राप्त
लब्धम्-२ नहीं है अर्थात् पदम् स्वरूप .
न परिच्छिन्न नहीं है
निर्विकल्पम-संकल्प-रहित है दूरम् दूर न नहीं है
निरायासम् प्रयत्न-रहित है
निर्विकारम् विकार-रहित है च-और
निरञ्जनम् दुःख रहित है ।
भावार्थ । प्रश्न-संकल्प के दूर करने-मात्र से कैसे आत्मा-रूपी अमृत की प्राप्ति होती है ?
उत्तर-आत्मा किसी की दूर नहीं है और आत्मा परिच्छिन्न भी नहीं है, क्योंकि सर्वत्र व्यापक है, इसी वास्ते आत्मा नित्य ही प्राप्त है। मन के संकल्प के वश से अज्ञानी पुरुष आत्मा को अप्राप्त की नाईं मानते हैं।
अन्वयः।