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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ ।
संपूर्ण जगत् मन की कल्पना मात्र है ।
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शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा न वै बध्येत कर्हिचित् । बन्धमोक्ष मनःसंस्थौ तस्मिञ्छान्ते प्रशाम्यति ॥ १ ॥
आत्मा शुद्ध है, नित्यमुक्त है, कदापि वह बंधायमान नहीं है, बंध और मोक्ष मन में स्थित है, उस मन के शान्त होने से बंध और मोक्ष भी शान्त हो जाते हैं ।। १ ।।
आत्मा नित्यमुक्त है, सनातन है, ऐसा निश्चय करके विद्वान् ज्ञानी बालक की नाईं चेष्टा करता है ॥ ७ ॥
मूलम् ।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ । निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम् ॥ ८ ॥ पदच्छेदः ।
आत्मा, ब्रह्म, इति, निश्चित्य, भावाभावौ, च, कल्पितौ, निष्काम:, किम्, विजानाति, किम्, ब्रूते, च, करोति किम् ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
आत्मा=जीवात्मा ब्रह्म = ब्रह्म है
च=और
भावाभावौ =भाव और अभाव . कल्पितौ =कल्पित है
अन्वयः ।
,
इति= ऐसा
निश्चित्य निश्चय करके
निष्कामः = कामना - रहित पुरुष
किम्क्या
विजानाति जानता है