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अन्वयः ।
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
शब्दार्थ |
= सूर्य अस्त होता है, वहाँ ही शयन करनेवाले
यत्र = जहाँ
अस्तमितशायिनः
च= और
स्वच्छन्दम् = इच्छानुसार देशान् = देशों में
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
चरतः = फिरनेवाले
धीरस्य = ज्ञानी को
यथापतित- पतितवर्त्ती के वर्तिनः
समान
सर्वत्र = सर्वत्र
तुष्टिः = आनन्द भवति होता है ||
भावार्थ ।
धीर विद्वान् को जैसे- जैसे प्रारब्धवश से पदार्थ की प्राप्ति होती है, वैसे ही वैसे वह संतुष्ट रहता है, और प्रारब्ध के वश से नाना प्रकार के देशों में, वनों में, नगरों में विचरता हुआ सर्वत्र ही तुष्ट रहता है ।। ८५ ॥
मूलम् ।
पततदेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः । स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः ॥ ८६ ॥
पदच्छेदः ।
पततु, उदेतु, वा, देहः, न, अस्य, चिन्ता, महात्मनः, स्वभाव भूमि विश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः ।।