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३५८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । धीरः, न, द्वेष्टि, संसारम्, आत्मानम्, न, दिदृक्षति, हर्षामर्षनिर्मुक्तः, न, मृतः, न, च, जीवति ॥ अन्वयः। शब्दार्थ ।। अन्वयः।
शब्दार्थ हर्षामर्षविनिर्मुक्तः हर्ष-रोष-रहित
/ देखने की इच्छा धीर: ज्ञानी
। करता है। संसारम् संसार के प्रति
सः वह नम्न
मृतः मरा हुआ द्वेष्टि द्वेष करता है
च-और च-और
नम्न नम्न
जीवति जीवता है॥
भावार्थ । जो धीर विद्वान जीवन्मुक्त है, वह संसार के साथ द्वेष नहीं करता है। क्योंकि वह संसार को देखता ही नहीं है, अपने आत्मा को ही देखता है। और यदि संसार को देखता है, तो बाधितानुवृत्ति द्वारा देखता है। और इसीलिये वह संसार के साथ द्वेष नहीं करता है। परिपक्व अवस्था में वह आत्मा को भी नहीं देखता है। क्योंकि वह स्वयम् आत्मा-रूप है और इसी कारण वह हर्षादिकों से और जन्ममरण से रहित है ॥ ८३ ॥
मूलम् । निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च । निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः ॥ ८४ ॥