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अठारहवाँ प्रकरण |
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बराबर हैं । आत्म-ज्ञान के बल से उसके हृदय की ग्रन्थि टूट गई है, रज-तम-रूप मल उसके दूर हो गये हैं ॥ ८८ ॥
मूलम् । सर्वत्रानवधानस्य न किञ्चिद्वासना हृदि । मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते ॥ ८९ ॥
पदच्छेदः ।
सर्वत्र, अनवधानस्य, न किञ्चित्, वासना, हृदि, मुक्तात्मनः, वितृप्तस्य, तुलना, केन, जायते ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
सर्वत्र=सब विषयों में अनवधानस्य = आसक्ति - रहित हृदि हृदय में किञ्चित् = कुछ भी
वासना-वासना
न=नहीं है
ईदृशस्य = ऐसे
तृप्तस्य = तृप्त हुए मुक्तात्मनः ज्ञानी की
शब्दार्थ |
तुलना = बराबरी
केन = किसके साथ जायते = की जा सकती है ।
भावार्थ |
जिस विद्वान् को किसी विषय में चित्त की रुचि नहीं है, और जिसके हृदय में किंचित् भी वासना नहीं है, वही अध्यास से रहित ज्ञानी है । उसकी तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती है, केवल ज्ञानी के साथ ही की जाती
॥ ८९ ॥