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अठारहवाँ प्रकरण ।
निष्कामः | अर्थात् ज्ञानी
नम्न
अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । . कामना-रत पुरुष समदुःख-- / सुख और दुःख है ।
सुखः । तुल्य जिसको, ऐसा शान्तम्-शान्त पुरुष को
योगी-योगी
तृप्तः आनन्दित होता हुआ स्तौति-स्तुति करता है
कृत्यम्-किये हुए कर्म को अपि और दुष्टम् दुष्ट पुरुष को
किञ्चित् कुछ भी निन्दति-निन्दा करता है पश्यति-देखता है ॥
भावार्थ । विद्या और कामुक कर्मों से रहित जो ज्ञानी है, वह शान्ति आदिक शुद्ध गुणों द्वारा युक्त हुए पुरुष की स्तुति नहीं करता है।
निःस्तुतिनिर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च । चलाचलानिकेतश्च यतिनिष्कामुको भवेत् ॥१॥
ज्ञानवान् यति किसी न स्तुति करता है, न किसी को नमस्कार करता है, न अग्नि में हवनादि करता है। वह न एक जगह वास करता है, और न वह किसी की निंदा करता है, सुख-दु:ख में सम रहता है, निष्काम होने से किसी कृत्य को नहीं देखता है ।। ८२ ॥
मूलम् । धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मनं न दिदृक्षति । हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति ।। ८३ ॥