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अठारहवाँ प्रकरण ।
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अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ। ज्ञानिनम् ज्ञानी को
हि-निश्चय करके नम्न
अत्र-इसमें स्वर्गः स्वर्ग है
बहुना=बहुत नम्न
उक्तेन-कहने से नरकः एव-नरक ही है
किम्=क्या प्रयोजन है च और
योगिनम्-योगी को नम्न
योगदृष्टया योग-दृष्टि से जीवन्मुक्ति एव-जीवन्मुक्ति ही । किञ्चन न=कुछ भी नहीं है ।।
भावार्थे । जीवन्मुक्त आत्म-ज्ञानी की दृष्टि में न स्वर्ग है, और न नरक है।
प्रश्न-नास्तिक भी स्वर्ग-नरक को नहीं मानता है, अर्थात् नास्तिक की दृष्टि में भी न स्वर्ग है, न नरक है, तब नास्तिक में और जीवन्मुक्त में कुछ भी भेद न रहा ?
उत्तर-नास्तिक की दृष्टि में यह लोक तो है, परन्तु परलोक नहीं है, और न उसकी दृष्टि में आत्मा ही है। वह तो केवल शून्य को ही मानता है, और ज्ञानी जीवन्मुक्त की दृष्टि में लोक-परलोक दोनों नहीं हैं, किन्तु सर्वत्र एक आत्मा ही परिपूर्ण व्यापक है । आत्मा से अतिरिक्त और कुछ भी विद्वान् की दृष्टि में नहीं है ॥ ८० ॥
मूलम्। नैव प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति । धीरस्य शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम् ॥ ८१॥