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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । प्रश्न-संसार को देखता हुआ भी वह कैसे ब्रह्म-रूप हो सकता है ?
उत्तर-जिस पूरुष के अंतःकरण में अहंकार का अध्यास होता है, वह लोक-दृष्टि करके न करता हुआ भी संकल्पादिकों को करता है।
जैसे जब कोई जटा रखाकर, धूनी लगाकर, मौन होकर बैठ जाता है, तब लोग कहते हैं कि बाबाजी कुछ नहीं करते हैं। पर वह भीतर मन में संकल्प करता है कि कोई बड़ा आदमी आवे, तो भाँग-बूटी का काम चले; इस तरह से ज्ञानी काव्यवहार नहीं होता है । उसको भीतर से ही संकल्पविकल्प नहीं फुरते हैं। इसी बास्ते वह कर्तृत्वादि अध्यास से रहित है ।। २९॥
मूलम् । नोद्विग्नं न च संतुष्टमकर्तृ स्पन्दजितम् । निराशं गतसंदेहं चित्तं मुक्तस्य राजते ॥ ३० ॥
पदच्छेदः । न, उद्विग्नम्, संतुष्टम्, अकर्तृस्पन्दवजितम्, निराशम्, गतसंदेहम्, चित्तम्, मुक्तस्य, राजते । शब्दार्थ । अन्वयः ।
शब्दार्थ। मुक्तस्य-ज्ञानी का
निराशम् आशा-रहित अकर्तृ स्पन्द- कर्तृत्व-रहित और । गतसंदेहम्-संदेह-रहित
वर्जितम् । संकल्प विकल्प-रहित । चित्तम्-चित्त
अन्वयः।