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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
उधर जब पण्डितजी कथा बाँचकर अपने घर गए, तब रात्रि आने का विचार करने लगे, इतने में रात्रि हो गई । जब एक पहर रात्रि व्यतीत हुई, तब पण्डितजी शिर पर कपड़ा डा हुए उस वेश्या के मकान के नीचे पहुँचे और जाकर किवाड़ को हिलाया । तब नौकर ने वेश्या से कहा कि पण्डितजी आए हैं । वेश्या ने तुरंत किवाड़ खोल दिया । पण्डितजी ऊपर गए, तो वेश्या ने उनको पलंग पर बैठाया और आप नीचे बैठी, तब पण्डितजी ने कहा कि हे प्यारी ! तू मेरे पास बैठ, हम तो आज तुम्हारे साथ आनन्द करने आए हैं । वेश्या ने कहा कि महाराज ! आपने ही तो आज कथा में विषय-भोग की बड़ी निन्दा सुनाई और फिर आप ही ने यह भी कहा था कि जो पुरुष पर स्त्री के साथ भोग करता है, उसको यमदूत अग्नि से तपे हुए खम्भों के साथ Maid हैं और स्त्री को भी अग्नि से तपे हुए खम्भों के साथ लगाते हैं । तब फिर मैं कैसे आपके साथ क्रीड़ा करूँ । तब पण्डितजी ने कहा कि जब कृष्णजी ने अवतार लिया था, तब उन्होंने उन सब खम्भों को उखाड़कर समुद्र में डाल दिया था। अब वे खम्भे नहीं रह गये हैं वे तो पूर्व युगों की वार्त्ताएँ थीं, इस युग की नहीं हैं, तू अपने को अकर्त्ता मानकर, आकर आनन्द ले | ऐसे बद्धज्ञानियों के चित्त कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होते हैं । धर्मशास्त्र में भी कहा है
पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः । सर्वे ते व्यसिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पण्डिता ॥ १ ॥