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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः ।
ज्ञानात्, गलितकर्मा, य:, लोकदृष्टया, अपि, कर्मकृत्, न, आप्नोति, अवसरम्, कर्तुम्, वक्तुम्, एव, न, किञ्चन ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
३५२
अन्वयः ।
ज्ञानात् = ज्ञान से
गतिकर्मा=
नष्ट हुआ है कर्म
यः जो ज्ञानी
लोकदृष्ट्या लोक- दृष्टि करके कर्मकृत् कर्म का करनेवाला अपि-भी
अस्ति = है
परन्तु=परन्तु
सः वह
नन
किञ्चन = कुछ
कर्तुम्=करने को
अवसरस्=अवसर
आप्नोति पाता है।
च = और
न=न
किञ्चन = कुछ aagara = कहने को |
भावार्थ ।
जिस विद्वान् का अध्यास कर्मों में आत्म-ज्ञान से नष्ट हो गया है, वह लोक - दृष्टि से कर्म करता हुआ मालूम देता है, परन्तु मैं कर्म को करता हूँ, ऐसा वह कभी भी नहीं कहता है । क्योंकि उसको आत्म-ज्ञान के प्रताप से कर्म - फल की इच्छा ही नहीं होती है ।। ७७ ।।
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मूलम् I
क्व तमः क्व प्रकाशोवा हानं क्व च न किञ्चन । निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा ॥ ७८ ॥