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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । जो विद्वान् नाश से रहित, संतापों से रहित आत्मा को देखता है, उसको विद्या कहाँ ? और शास्त्र कहाँ ? क्योंकि उसकी दृष्टि में न जगत है, और न शरीर है। आत्मा से अतिरिक्त का उसमें स्फुरण नहीं होता है ॥७४॥
मूलम् । निरोधादीनि कर्माणि जहाति जडधीर्यदि । मनोरथान्प्रलापांश्चकर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात् ॥ ७५ ॥
पदच्छेदः । निरोधादीनि, कर्माणि, जहाति, जडधीः, यदि, मनोरथान्, प्रलापान्, च, कर्तुम्, आप्नोति, अतत्क्षणात् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। यदि-जब
अतत्क्षणात्-तभी से जडधी:-अज्ञानी
मनोरथान् मनोरथों निरोधादीनि-चित्त-निरोधादिक
च-और कर्माणि कर्मो को
प्रलापान-प्रलापों के जहाति-त्यागता है
कर्तुम् करने को
आप्नोति-प्रवृत्त होता है ।
भावार्थ । यदि अज्ञानी चित्त के निरोधादि कर्मों का त्याग भी कर देवे, तो भी वह मनोराज्यादिकों और वाणी के प्रलापों को किया करता है ॥ ७५ ॥