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अठारहवाँ प्रकरण ।
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। शुद्धबोधस्य= शुद्ध-बुद्ध-स्वरूप
अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। महदादि-महत्तत्त्व आदि
विहाय-छोड़कर द्वैतम् जगत्-द्वैत जगत्
नाममात्र-_ नाम-मात्र भिन्न विजृम्भितम् । है
किम्=क्या तत्र-उसमें
कृत्यम् कर्तव्यता कल्पनाम कल्पना को
अवशिष्यते अवशेष रहती है ॥
भावार्थ । हे जनक ! महदादिरूप जितना जगत् है, अर्थात् महत्, अहंकार, पञ्चतन्मात्रा, पञ्चमहाभूत और उनका कार्य-रूप जितना जगत् है, वह केवल नाम-मात्र करके ही फैला है,
और आत्मा से भिन्न की नाईं प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में भिन्न नहीं है। वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यमिति श्रुतेः ।
जितना कि नाम का विषय-विकार है, वह सब वाणी का कथन-मात्र ही है । मृत्तिका ही सत्य है ।। १ ॥
इसी तरह जितना कि नाम का घटपटादि-रूप जगत है, वह सब कल्पना-मात्र ही है, अधिष्ठान-रूप ब्रह्म ही सत्य है।
जिस विद्वान् ने संपूर्ण कल्पना का त्याग कर दिया है, जो केवल शुद्ध चैतन्य-स्वरूप में ही स्थित है, उसको कोई कर्तव्य बाकी नहीं रहा है ।। ६९ ॥
मूलम्। भ्रमभूतमिदं सर्व किञ्चिन्नास्तीति निश्चयी। अलक्ष्यस्फुरणा शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति ॥ ७० ॥