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अठारहवाँ प्रकरण |
मूलम् ।
पूर्णस्वरसविग्रहः ।
जयत्यर्थ संन्यासी अकृत्रिमोऽनवविच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते ॥ ६७ ॥
पदच्छेदः ।
स
सः, जयति, अर्थसंन्यासी, पूर्णस्वरसविग्रहः, अकृत्रिमः, अनवच्छिन्ने, समाधिः यस्य वर्त्तते ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
सः वही
अर्थ संन्यासी = दृष्टादृष्ट कर्म-फल पूर्णस्वरस - _ पूर्णानन्द-स्वरूपवाला ज्ञानी
{
विग्रहः
जयति जय को प्राप्त होता है
३४३
यस्य जिसकी
अकृत्रिमः = स्वाभाविक
समाधिः समाधि
भावार्थ |
शब्दार्थ |
अवधि = अपने पूर्ण स्वरूप में वर्तते वर्तती है |
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जो विद्वान् दृष्टअदृष्ट अर्थात् इस लोक के और परलोक के फलों की कामना से रहित है, अर्थात् जो निष्काम है, वही परिपूर्ण स्वरूपवाला है । अर्थात् अपने स्वरूप में ही जिसकी समाधि सर्वदा बनी रहती है, वही विद्वान् है, वह सबसे श्रेष्ठ होकर संसार में फिरता है ।। ६७ ।।
मूलम् ।
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः । भोगमोक्षनिराकाङ्क्षी सदा सर्वत्र नीरसः ॥ ६८ ॥