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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
मूलम् ।
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम् । आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य
पदच्छेदः ।
क्व, संसार:, क्व, च, आभासः, क्व, साध्यम्, क्व, च, साधनम्, आकाशस्य, इव, धीरस्य, निर्विकल्पस्य, सर्वदा ॥
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
३४२
अन्वयः ।
सर्वदा सर्वदा
आकाशस्य इव आकाशवत्
निर्विकल्पस्व-विकल्प - रहित धीरस्य-ज्ञानी को
क्व= कहाँ संसार:-संसार है।
च= और
अन्वयः ।
सर्वदा ॥ ६६ ॥
कहाँ
साभास: = उसका भान है
क्व कहाँ
साध्यम् = साध्य अर्थात् स्वर्ग है
च=और
साधनम्= {
साधन अर्थात् अज्ञादि कर्म है ||
भावार्थ ।
जो विद्वान् सर्वदा संकल्प - विकल्पों से रहित है, उसको प्रपञ्च कहाँ और उसकी दृष्टि में स्वर्गादिक कहाँ । जब उसकी दृष्टि में स्वर्गादिक ही नहीं, तब उनका साघनीभूत यागादिक उसकी दृष्टि में कहाँ ? आत्मवित् जीवन्मुक्त की दृष्टि में जब कि सर्वत्र एक आत्मा ही व्यापक परिपूर्ण है, दूसरा कोई पदार्थ ही नहीं है, तब स्वर्ग-नरक और उनके साधन-भूत पुण्य-पापादिक भी कहीं नहीं ।। ६६ ।।