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अठारहवाँ प्रकरण ।
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आरम्भों में प्रवृत्ति होता भी है, तो भी वह वास्तव में कुछ भी नहीं करता है। क्योंकि वह अहंकार-रूपी मल से रहित है और इसी कारण उसमें कर्तृत्व भाव नहीं है । ६४ ॥
मूलम्। स एव धन्यः आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः । पश्यञ्शृण्वन्स्पृशजिघ्रनिस्तषमानसः ॥ ६५ ॥
पदच्छेदः । सः, एव, धन्यः, आत्मज्ञः, सर्वभावेषु, यः, समः, पश्यन्, शृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, निस्तर्षमानसः । अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ। सः एव-वही
श्रृण्वन्=सुनता हुआ आत्मज्ञः आत्म-ज्ञानी
स्पृशन्-स्पर्श करता हुआ धन्यः धन्य है
जिघ्रन्-सूघता हुआ यः जो
अश्नन्-खाता हुआ निस्तर्षमानसः-तृष्णा-रहित
सर्वभावेषु सब भावों में पश्यन्-देखता हुआ
सम: एक रस है ।
भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! वही आत्मज्ञानी पुरुष धन्य है, जिसको सब प्राणियों में आत्मबुद्धि है। इसी कारण उसका चित्त तृष्णा से रहित है। वह सर्व पदार्थों को देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ भी कुछ नहीं करता है, किन्तु वह सर्वदा शान्त एक-रस है ॥ ६५ ।।