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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० होता, तो कदापि उनकी वृत्तियाँ विषयाकार उत्पन्न न होतीं।
दृष्टान्त । जैसे हिन्दू-धर्म के लिए गोमांस अति निषिद्ध है, अतः किसी हिन्द्र का मन गोमांस की तरफ स्वप्न में नहीं जाता है, वैसे ही जिस विद्वान् ज्ञानी का यह परिपक्व निश्चय है कि मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, उसका मन कभी स्वप्न में भी विषयों की तरफ नहीं जाता है, और उसकी विषयाकार वृत्ति कदापि नहीं उदय होती है, और जिसका निश्चय परिपक्व नहीं है अर्थात् जो बद्धज्ञानी है, वह लोगों को सुनाता है कि मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, परन्तु भीतर से उसकी विषयों की तरफ बिलार की तरह दृष्टि रहती है। जैसे बिलार तब तक आँखों को मूंदे रहती है, जब तक मूसे को नहीं देखती है । जब मूसे को देखती है, तुरन्त झपटकर खा जाती है, वैसे ही बद्धज्ञानी भी तब तक ही अकर्ता, अभोक्ता बना रहता है, जब तक विषय-रूपी मूस उनको नहीं दीखता है। जब विषय-रूपी मूस उसके सामने आता है, तुरंत ही वह कर्ता और भोक्ता होकर उसको खा जाता है।
एक निर्मल संत पञ्जाब देश के किसी ग्राम में एक युवती स्त्री को 'विचार-सागर' पढ़ातें थे।पढ़ाते-पढ़ाते उस पर उनका मन चलायमान हो गया। तब उसकी जाँघों पर हाथ फेरने लगे। उस स्त्री ने कहा कि महाराज अभी तो आपने मुझे