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अठारहवाँ प्रकरण ।
३२७ पढ़ाया है कि भोगों को विष के तुल्य जानकर त्याग करना चाहिए और आप ही अब मेरी जाँघों पर हाथ फेरते हैं, यह क्या बात है। तब उन महात्मा ने कहा कि हम तुम्हारी परीक्षा करते हैं। तुमने समग्र विचार-सागर' पढ़ लिया, परंतु तुम्हारा देहाध्यास नहीं छूटा । अब देखिए, महात्माजी तो स्वयं अपना देहाध्यास दूर नहीं कर सके और विषयलोलुप होकर पर-स्त्री की जाँघों पर हाथ फेरने लगे, परंतु दूसरे का देहाध्यास छड़ाने को तैयार थे। ऐसे बद्धज्ञानियों के चित्त में कदापि शान्ति नहीं होती है, और दृष्टान्त को भी सुनिए
पूर्व देश में एक पण्डित किसी मन्दिर में 'योगवाशिष्ठ' की कथा कहते थे। उनकी कथा में माई लोग भी बहुत आती थीं और गन्धर्व जाति की एक वेश्या भी उनकी कथा में आती थी और माई लोगों में बैठती थी। ____ एक दिन कथा में स्त्री के संग का बहुत निषेध आया और पर-स्त्री के संग का बहुत ही दोष निकला। उस दिन कथा कहते-कहते जब पण्डितजी की दृष्टि उस वेश्या के ऊपर पड़ी, तब पण्डितजी का मन उस वेश्या में आसक्त हो गया। जब कथा समाप्त हुई, तब सब कोई अपने-अपने घर को चले गए, तो वह वेश्या भी अपने मकान को चली गई, और जाकर उसने विचार किया कि आज से फिर मैं इस व्यभिचार-कर्म को नहीं करूँगी। ऐसा निश्चय करके उसने अपना फाटक संध्या से ही बंद करा दिया और भीतर बैठकर भजन करने लगी। इधर तो यह हाल हुआ और