________________
३३२
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
अग्नि आदिक देवताओं, गंगा आदिक तीर्थों के पूजा करने से कामना उत्पन्न नहीं होती है । क्योंकि वे निष्काम हैं और सुन्दर स्त्री- पुत्रादिकों के प्रति और राजा को देख कर के भी उनके चित्त में कोई वासना खड़ी नहीं होती है । क्योंकि वे सर्वत्र समबुद्धि और समदर्शी हैं ।। ५४ ।।
मूलम् । भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः । विहस्य धिक्कृतो योगी नयातिविकृति मनाक् ॥ ५५ ॥ पदच्छेदः ।
,
भृत्यैः पुत्रैः, कलत्रैः च, दौहित्रैः च, अपि, गोत्रजैः, विहस्य, धिक्कृतः, योगी, न, याति, विकृतिम्, मनाक् ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
भृत्यैः = किंकरों करके पुत्रैः पुत्रों करके
दौहित्रैः = नातियों करके
च=और
गोत्रजैः = बान्धवों करके अपि =भी
विहस्य = हँस कर के
धिक्कृतः = धिक्कार किया हुआ योगी ज्ञानी
मनाक = किंचित् भी
(विकार को विकृतिम् = २ अर्थात् चित्त के मोक्ष को
न याति नहीं प्राप्त होता है ॥
भावार्थ ।
हे शिष्य ! जो ज्ञानी जीवन्मुक्त हैं, उनका चित्त भृत्यों करके याने नौकरों करके, पुत्रों करके, स्त्रियों करके, कन्याओं करके और स्वगोत्रियों करके अर्थात् सम्बन्धियों करके भी तिरस्कार किया हुआ क्षोभ को नहीं प्राप्त होता है । और