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अन्वयः।
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
मूलम् । कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः । शन्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः ॥ ५७ ॥
पदच्छेदः । कर्तव्यता, एव, संसारः, न, ताम्, पश्यन्ति, सूरयः, शून्याकाराः, निराकाराः, निर्विकाराः, निरामयाः ॥ शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । कर्तव्यता-कर्त्तव्यता
निर्विकाराः संकल्प-रहित एवम्ही
च-और संसार: संसार है ताम्-उस कर्त्तव्यता को ।
निरामयाः-दुःख-रहित शून्याकारा:-शून्याकार
सूरयः-ज्ञानी निराकाराः आकार-रहित । न पश्यन्ति-नहीं देखते हैं ।
भावार्थ । हे शिष्य ! "ममेदं कर्तव्यम्" मेरे को यह कर्तव्य है, ऐसे निश्चय का नाम ही संसार है। इसी कारण जीवन्मुक्त ज्ञानी उस कर्तव्यता को नहीं देखता है, और न उसका संकल्प करता है। क्योंकि वह संकल्प-मात्र से रहित है, वह शून्याकार है, और निराकारादि संकल्पों से भी रहित है, और विकारों से भी रहित है, और जो आध्यात्मिकादि रोग हैं, उनसे भी रहित है ॥ ५७ ।।
मूलम् । अकुर्वन्नपि स क्षोभाद्वयनः सर्वत्र मूढधीः । कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः ॥ ५८ ॥