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अठारहवां प्रकरण ।
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भावार्थ ।
जिस काल में विद्वान् अपने को अकर्ता और अभोक्ता मानता है, उसी काल में चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं अर्थात् जब वह ऐसा निश्चय करता है कि इस कर्म को मैं करूँगा, और उसका फल मुझे प्राप्त होगा, तब उसके चित्त की अनेक वृत्तियाँ उदित होती हैं, और वह दुःखी होता है । परन्तु जब अपने को अकर्ता, अभोक्ता निश्चय करता है, तब उसके चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं, और वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
प्रश्न-केवल अकर्ता, अभोक्ता निश्चय करने से ही यदि चित्त की वृत्तियों का अभाव हो जावे, और वह जीवन्मुक्त हो जावे, तो बद्धज्ञानियों के चित्त की वृत्तियों का अभाव होना चाहिए और उनका भी जीवन्मुक्त कहना चाहिए, पर ऐसा नहीं देखते हैं । क्योंकि बद्धज्ञानियों के चित्त की वृत्तियां विषयों में लगी रहती हैं, और उनको लोग जीवन्मुक्त भी नहीं कहते हैं । इसी से सिद्ध होता है कि केवल अकर्ता, अभोक्ता मान लेने से ही वृत्तियों का निरोध नहीं होता है।
उत्तर-उन बद्धज्ञानियों का जो कथन है कि हम अकर्ता हैं, हम अभोक्ता हैं, सो सब मिथ्या है। क्योंकि उनका अभ्यास बना है, उनकी विषयाकार वृत्तियाँ उदय होती हैं, और न उनका निश्चय परिपक्व है । यदि निश्चय परिपक्व