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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ ।
स्वतन्त्रता से अर्थात् राग-द्वेष की अधीनता से रहित पुरुष सुख को प्राप्त होता है और उसी स्वतन्त्रता करके पुरुष आत्म-ज्ञान को भी प्राप्त होता है, और स्वतन्त्रता से ही पुरुष नित्य सुख को भी प्राप्त होता है, और स्वतन्त्रता करके ही पुरुष परम शान्ति को भी प्राप्त होता है ॥ ५० ॥
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मूलम् ।
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा । तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः ॥ ५१ ॥
पदच्छेदः ६ः ।
,
अकर्तृत्वम्, अभोक्तृत्वम्, स्वात्मनः मन्यते यदा, तदा, क्षीणः, भवन्ति, एव, समस्तः, चित्तवृत्तयः ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
यदा- जब
+ पुरुषः- पुरुष
स्वात्मनः = अपने आत्मा के
अकर्तृत्वम्=अकर्तापने को
अभोक्तृत्वम् = अभोक्तापने को मन्यते = मानता है।
अन्वयः ।
,
शब्दार्थ |
तदा-तब
+ तस्य = उसकी समस्ताः = सम्पूर्ण
चित्तवृत्तयः चित्त की वृत्तियाँ एव = निश्चय करके
क्षीणा:-नाश भवन्ति = होती हैं ||