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३२२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि चिदात्मा के श्रवण-मात्र से ही जिसकी शुद्ध अखण्डाकार बुद्धि उत्पन्न हई है, वही अपने आत्मा के स्वरूप में स्थित है । वह न आचार को, न अनाचार को अर्थात् न शुभ, न अशुभकर्म को, न उनसे रहित होने की इच्छा को करता है। क्योंकि वह सदा अपने मन में मग्न रहता है ॥ ४८ ॥
मूलम्। यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः । शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत् ॥ ४९ ॥
- पदच्छेदः।। यदा, यत्, कर्तुम्, आयाति, तदा, तत्, कुरुते, ऋजः, शुभम्, वा, अपि, अशुभम्, वा, अपि, तस्य, चेष्टा, हि, बालवत् ॥ अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः।
धीरः ज्ञानी यत्-जो कुछ
ऋजुः आग्रह-रहित शुभम् शुभ
कुरुते करता है वा अपि-अथवा अशुभम् अशुभ
हि-क्योंकि कर्तुम् करने को
तस्य-उसको आयाति प्राप्त होता है
चेष्टा व्यवहार तदा तब
बालवत् बालवत् तत्-उसको
भवति-प्रतीत होता है।
शब्दार्थ।
यदा-जब