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अठारहवाँ प्रकरण ।
३२१ स्पृशन्-स्पर्श करता हुआ
सः वह जिघ्रन्-सूचता हुआ
यथासुखम्-सुख-पूर्वक अश्नन्-खाता हुआ
आस्ते-रहता है ।
भावार्थ । दूर हो गए हैं संशय जिसके, निश्चल है मन जिसका, ऐसा जो जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष है, वह यम-नियमादिक क्रिया को भी हठ से नहीं करता है, क्योंकि उसको कर्तृत्वाध्यासनहीं है। वह देखता हुआ, सुनता हुआ,स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ अर्थात् लोकदृष्टि करके सर्वक्रिया को करता हुआ, अपने आत्मानन्द में ही स्थिर रहता है । ४७ ।।
मूलम्। वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिनिराकुलः । नैवाचारमनाचारमौदास्यं वा प्रपश्यति ॥ ४८ ॥
पदच्छेदः । वस्तुश्रवणमात्रेण, शुद्धबुद्धि, निराकुलः, न, एव, आचारम्, अनाचारम्, औदास्यम्, वा, प्रपश्यति ।। अन्वयः। शब्दार्थ ।। अन्वयः ।
शब्दार्थ। वस्तुश्रवण-_ यथार्थ वस्तु के
न एव-न मात्रेण । श्रवण-मात्र से ही
आचारम्-आचार को शुद्धबुद्धि : शुद्ध बुद्धिवाला
वा और च-और
औदास्यम्उदासीनता को पुरुष
प्रपश्यति=देखता है ।
निराकल:- स्वस्थ चित्तवाला