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अठारहवाँ प्रकरण ।
चित्त की निरोधता
निरोधकाप्रच= और एकाग्रता की सिद्धये सिद्धि के लिये
भावार्थ ।
मूढ़ मुमुक्षु विषय- रूपी व्याघ्रों को देख करके भय को प्राप्त होता और चित्त की वृत्ति को एकाग्र करने के लिये पहाड़ी कन्दरा में प्रवेश कर जाता है, परन्तु उसका कार्य सिद्ध नहीं होता है, उसकी अन्तर्वृत्ति फैलती जाती है और वह हर दिन दु:खी होता जाता है, शान्ति उसको लेश- मात्र भी नहीं होती है और जो ज्ञानी जीवन्मुक्त है, वह विषयरूपी व्याघ्र को इन्द्रजाल - जन्य पदार्थों की तरह देखकर उनसे भय नहीं खाता है ।। ४५ ।।
अन्वयः ।
मूलम् ।
निर्वासनं हरि दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः । पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः ॥ ४६ ॥ पदच्छेदः ।
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झटिति शीघ्र
= पहाड़ की गुहा में विशन्ति = प्रवेश करते हैं ||
निर्वासनम्, हरिम् दृष्टवा, तूष्णीम्, विषयदन्तिनः, पलायन्ते, न, शक्ताः, ते, सेवन्ते, कृतचाटवः ॥
शब्दार्थ |
निर्वासनम् = वासना - रहित
पुरुषम् = पुरुष-रूपी हरिम् = सिंह को दृष्टवा - देखकर
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
न शक्ताः - असमर्थ
विषयदन्तिनः-विषय-रूपी हाथी
तूष्णीम् = चुपचाप हुए पलायन्ते भागते हैं