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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ । स्वतन्त्रता से अर्थात् राग-द्वेष की अधीनता से रहित पुरुष सुख को प्राप्त होता है और उसी स्वतन्त्रता करके पुरुष आत्म-ज्ञान को भी प्राप्त होता है, और स्वतन्त्रता से ही पुरुष नित्य सुख को भी प्राप्त होता है, और स्वतन्त्रता करके ही पुरुष परम शान्ति को भी प्राप्त होता है ॥ ५० ॥ ३२४ मूलम् । अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा । तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः ॥ ५१ ॥ पदच्छेदः ६ः । , अकर्तृत्वम्, अभोक्तृत्वम्, स्वात्मनः मन्यते यदा, तदा, क्षीणः, भवन्ति, एव, समस्तः, चित्तवृत्तयः ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | यदा- जब + पुरुषः- पुरुष स्वात्मनः = अपने आत्मा के अकर्तृत्वम्=अकर्तापने को अभोक्तृत्वम् = अभोक्तापने को मन्यते = मानता है। अन्वयः । , शब्दार्थ | तदा-तब + तस्य = उसकी समस्ताः = सम्पूर्ण चित्तवृत्तयः चित्त की वृत्तियाँ एव = निश्चय करके क्षीणा:-नाश भवन्ति = होती हैं ||
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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