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________________ अठारहवाँ प्रकरण । ३२३ भावार्थ । जिस काल में वह ज्ञानी शुभ कर्म को अथवा अशुभ कर्म को करता है, वह प्रारब्ध के वश से, दैवगति से अकस्मात् करता है । शोभन, अशोभन बुद्धि करके वा हठ करके नहीं करता है । क्योंकि उसकी चेष्टा बालक की तरह प्रारब्ध के अधीन होती है, राग-द्वेष के अधीन नहीं होती है।। ४९ ॥ मूलम् । स्वातन्त्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातन्त्र्याल्लभते परम् । स्वातन्त्र्यानिवृतिगच्छेत्स्वातन्त्र्यात्परमपदम् ॥ ५० ॥ पदच्छेदः । स्वातन्त्र्यात्, सुखम्', आप्नोति, स्वातन्त्र्यात्, लभते, परम्, स्वातन्त्र्यात्, निवृतिम्, गच्छेत्, स्वातन्त्र्यात्, परमम्, पदम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः । शब्दार्थ । स्वातन्त्र्यात स्वतन्त्रता से स्वातन्त्र्यात स्वतन्त्रता से सुखम्-सुख को निर्वृतिम्-नित्य सुख को ज्ञानी-ज्ञानी . गच्छेत् प्राप्त होता है आप्नोति प्राप्त होता है स्वातन्त्र्यात-स्वतन्त्रता से स्वातन्त्र्यात स्वतन्त्रता से परमं पदम र परमपद को अर्थात परम ज्ञान को । अपने स्वरूप को लभते प्राप्त होता है आप्नोतिप्राप्त होता है ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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